हार की जीत सुदर्शन की पहली कहानी थी।
जो कि सन् 1920 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई।
कहानी बाबा भारती और उनके प्रिय घोड़े सुलतान और डाकु खड्गसिंह के ही आस-पास घूमती रहती है।
कहानी में केवल मुख्यतः दो पात्र है बाबा भारती और डाकु खड्गसिंह इनके ही ईर्द-गिर्द कहानी चलती हैं और तीसरा सुलतान है।
कहानी की भाषा स्वाभाविक, सहज एवं मुहावरेदार है।
पात्र परिचय
बाबा भारती – एक पशु प्रेमी और एक मानवतावादी व्यक्ति।
डाकु खड्गसिंह – इलाके का एक कुख्यात डाकु।
सुलतान – बाबा भारती का एक पालतु घोड़ा।
हार की जीत कहानी का सार
कहानी की कुछ ऐसे शुरुआत होती है।
बाबा भारती गांव के बाहर मंदिर में भगवान के ध्यान में मग्न रहते है।
उन्होंने सांसारिक मोह-माया को त्याग दिया है।
अपना समस्त जीवन भगवान को समर्पित कर दिया है।
उनके पास अपना कहने को केवल एक घोड़ा हैं, सुलतान जिसे बाबा भारती बहुत स्नेह करते हैं।
वह सुलतान के बगैर जीवित नहीं रह सकते।
वे सुलतान की मादक चाल पर लट्टू हैं।
उनका मानना है कि घोड़ा ऐसे चलता है जैसे मोर छटा देखकर नाच रहा हो।
जब तक शाम को सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर नहीं लगा लेते उन्हें चैन नहीं आता था।
सुलतान की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई थी।
इलाके के कुख्यात डाकु खड्गसिंह का आतंक चारों ओर छाया हुआ था।
सुलतान की चर्चा खड्गसिंह तक भी पहुँची।
वह सुलतान को देखने को बेचैन हो उठा।
एक दिन वह बाबा भारती के पास आकर सुलतान की प्रशंसा करते हुए उसे देखने की इच्छा जाहिर की।
प्रशंसा सुनकर बाबा भारती प्रसन्नता में खड्गसिंह को असतबल में ले जाकर दिखा देते है।
सुलतान को देखकर खड्गसिंह में उसको पाने की लालसा जागृत हो जाती है।
उसने बाबा भारती से सुलतान की सवारी की इच्छा प्रकट की।
बाबा भारती राजी हो गए।
उसे सुलतान की सवारी कर के बेहद पसंद आया था उसे पाने की लालसा अब और तीव्र हो गई थी।
उसने बाबा भारती को चेतावनी भरे स्वर में कहा कि वह किसी भी तरह सुलतान को हासिल कर के ही रहेगा।
इसे सुन बाबा भारती की चिंता और बढ़ गई।
वह सुलतान की सुरक्षा को लेकर अब चिंतित रहने लगे।
वह रात-रात भर अस्तबल में निगरानी में बिताने लगे।
हर समय उन्हें सुलतान के खोने की चिंता खाए रहती थी।
कुछ समय बाद सुलतान के प्रति बाबा भारती आश्वस्त हो गए और जीवन अपने पुराने ढर्रे पर लौट आया।
एक दिन बाबा भारती सुलतान पर सवारी करते हुए मुदित मन से कही जा रहे थे।
रास्ते में एक अपाहिज उनसे अपनी दुख भरी कथा सुनाते हुए घोड़े पर बिठाने की विनती की, जिससे वह अपने गन्तव्य स्थान पर सरलता से पहुँच सके।
अपाहिज की अवस्था देखकर बाबा भारती ने उसे घोड़े पर बिठा दिया और खुद घोड़े की लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे।
उन्हें सहसा झटका लगा और लगाम हाथ से छूट गई।
उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े पर तनकर बैठा है।
वह अपाहिज नहीं बल्कि खड्गसिंह था।
उन्होंने खड्गसिंह को रोकते हुए कहा घोड़ा तो तुमने ले लिया परंतु यह बात किसी से मत कहना वरना लोग निर्बल एवं दीन दुखी लोगों पर दया नहीं करेंगे।
यह कहकर बाबा भारती वापस मंदिर की ओर लौट गए।
बाबा भारती की कहीं बातें खड्गसिंह के अंतर्मन को छू गया था।
उसने घोड़े को ले जाकर रात्रि में अस्तबल में बांध दिया।
जब सुबह बाबा भारती ने अस्तबल में सुलतान को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए और उनके मुँह से सहसा निकल पड़ा अब कोई दीन-दुःखियों से मुँह नहीं मोड़ेगा।