मेन्यू बंद करे

दोपहर का भोजन कहानी – अमरकांत समीक्षा, पात्र और सार/सारांश

दोपहर का भोजन ज्ञानालय अमरकांत Gyanalay

दोपहर का भोजन एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है।

घर में कुल पाँच सदस्य है माता-पिता और उनके तीन बेटे।

पात्र परिचय

मुंशी चंद्रिका प्रसाद – परिवार के मुखिया, उम्र 45वर्ष जिनकी नौकरी चली गई है।

सिद्धेश्वरी – मुंशी चंद्रिका प्रसाद की पत्नी।

रामचंद – 21वर्षीय युवक लंबा, दुबला-पतला, गोरा रंग, बड़ी-बड़ी आँखे तथा होठों पर झुर्रियाँ।

 मोहन – साँवला और आँखे छोटी, उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। अपने भाई की ही तरह दुबला-पतला था किंतु लंबा नहीं था। उम्र के हिसाब से वह अधिक गंभीर और पढ़ाई में सदा सराबोर रहने वाला।

प्रमोद – छः वर्षीय सबसे छोटा लड़का।

दोपहर का भोजन कहानी की समीक्षा

मुंशी चंद्रिका प्रसाद की नौकरी छूट गई है।

मुंशी जी एक नए काम की तलाश में हैं पर उसका कोई उपाए नहीं सूझ रहा होता है।

उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब होती है कि वह अपना कोई काम भी नहीं शुरु कर सकते है।

परिवार कि चिंता ने उन्हें समय से पुर्व ही वृद्ध बना दिया है।

उनके सिर के बाल उड़ चुके हैं।

शरीर में झुर्रियाँ पड़ चुकी है।

उनका सबसे बड़ा 21वर्षीय बेटा रामचंद्र इन्टर पास है और प्रेस में प्रूफ रीडर का काम सीख रहा है।

मंझला बेटा मोहन अठारह वर्ष का है और हाई स्कूल में पढ़ाई कर रहा है।

छोटा बेटा प्रमोद छः वर्ष का है।

पाँच लोगों का यह परिवार अपने-अपने स्तर पर घर में व्याप्त आर्थिक तंगी से लड़ रहा है।

कहानी का घटनाक्रम सीधा एवं सपाट है।

पूरी कहानी दोपहर के भोजन के चारों ओर घूमती है।

कहानी में परिलक्षित स्थिति आज-कल के कई निम्न-मध्य वर्गीय घरों की दारुण स्थिति का यथार्थ बोध करवाती है।

कहानी के पात्र जिजीविका से भरपूर है।

चाहे परिस्थिति कैसी भी आए वह अडिग रहते है टूटते नहीं है।

कहानी के केंद्र में सिद्धेश्वरी है जो कि परिवार को एकजुट किए रखती है।

खुद बीमार होने के बावजूद संपूर्ण परिवार के हौसले को कम नहीं होने देती है।

गरीबी के कोप का शिकार वह घर के किसी भी सदस्य तक नहीं पहुँचने देती है।

कहानी का सार

कहानी की शुरुआत सिद्धेश्वरी के खाना बनाकर चुल्हे को बुझाने से होती है।

घर में तंगी का माहौल सर्वत्र व्याप्त है।

प्रमोद सबसे छोटा बेटा जो कि शारीरिक रुप से बेहद कमजोर है जिसके बदन पर हड्डियों का ढ़ाँचा साफ दिखाई देता है।

वह घर के आँगन में अध-टूटे खटोले पर नग्न अवस्था में सोया होता है।

जिसके खुले मुँह पर मक्खियाँ उड रही होती है जिसे सिद्धेश्वरी अपने फटे ब्लाउज से ढक देती है।

तभी उसका बड़ा लड़का रामचंद्र आता हुआ दिखाई पड़ा।

वह बेजान सा आते ही वह चौकी पर लेट गया कुछ देर वहीं पड़ा रहा।

सिद्धेश्वरी के पुकारने के पश्चात भी उसके पतिक्रिया नहीं देने पर वह लड़के के नाक पर हाथ देकर साँस चल रही है या नहीं इसकी जाँच की स्पर्श कर के देखा कहीं बुखार तो नहीं।

फिर लड़के ने आँखे खोल कर देखा।

सिद्धेश्वरी ने डरते-डरते हुए पुछा, खाना तैयार है। यहीं लगाऊँ क्या ?

रामचंद्र ने पिता के बारे में पूछा, बाबू जी खा चुके ?

सिद्धेश्वरी ने कहा आते ही होगें।

सिद्धेश्वरी ने खाना परोस दिया और पंखा हिलाने लगी।

खाने में कुल दो रोटियाँ, भरा-कटोरा पनियाई दाल और चने की तली तरकारी।

उसने अपने से छोटे भाई मोहन के बारे में पूछा जो कि इस साल हाईस्कूल का प्राइवेट इम्तेहान देने की तैयारी कर रहा था।

वह पढाई में बहुत तेज है उसका हमेशा मन पढाई में ही लगा रहता है।

सिद्धेश्वरी ने झूठ कहा कि दोस्त के पास पढ़ने गया है।

सिद्धेश्वरी डरते हुए अपने बेटे को देख रही थी।

कुछ देर बाद उसने पुछा कि वहाँ कुछ हुआ क्या ?

रामचंद्र ने कहा “समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।”

रामचंद्र ने पुछा प्रमोद खा चुका रोया तो नहीं था ? सिद्धेश्वरी ने उदास भाव से कहा “हाँ, खा चुका।”

सिद्धेश्वरी ने झुठ कहा आज सचमुच नहीं रोया।

प्रमोद कल रेवड़ी के लिए डेढ़ घंटे तक रोया था।

रामचंद्र की थाल में जब एक टुकड़ा शेष रह जाता है तब सिद्धेश्वरी रोटी लेने की जिद्द करती है।

रामचंद्र गुस्से के साथ मना करता है।

बचे हुए अंतिम टुकड़े को सिद्धेश्वरी के जाने के पश्चात उसे मुँह में इस सरलता से रखता है जैसे कि पान का बीड़ा हो।

मोहन (मंझला लड़का) घर आते ही हाथ-पैर धोकर पीढ़े पर बैठ गया।

सिद्धेश्वरी ने थाल रखते हुए सवाल किया कि कहाँ रह गया था ?

उसने कहा यही पर था।

सिद्धेश्वरी ने कहा “बड़का तुम्हारी तारीफ कर रहा था, मोहन बड़ा दिमागी होगा, उसकी तबीयत चौबीसों घंटे पढ़ने में लगी रहती है।”

मोहन परोसी गई रोटियों में से एक रोटी कटोरे के तीन-चौथाई दाल तथा अधिकांश तरकारी साफ कर चुका था।

सिद्धेश्वरी को समझ नहीं आया कि क्या करें उसे इन दोनों लड़कों से बहुत डर लगता था।

अचानक उसकी आँखें भर आई।

वह दूसरी ओर देखने लगी।

थोड़ी देर बाद उसने मोहन की ओर देखा तो सारा खाना समाप्त कर चुका था।

सिद्धेश्वरी ने एक रोटी लेने को कहाँ मोहन ने रसोई की ओर देखकर कहाँ नहीं।

सिद्धेश्वरी ने गिड़गिड़ाते हुए रोटी लेने को जिद्द की अपनी कसम भी दे दी और झूठ कहा कि तुम्हारे भईया ने एक रोटी ली थी।(झूठ कहा)

उसने रोटी की बुराई की और कहा कि दाल दे दे बड़ी अच्छी बनी है।

तभी मुंशी चंद्रिका प्रसाद आ कर चौकी पर बैठ गए।

दो रोटियाँ, कटोरा-भर दाल, चने का तली तरकारी मुंशी जी पीढ़े पर पालथी मारकर बैठे एक-एक ग्रास को इस तरह चुभली-चबा रहे थे, जैसे बुढ़ी गाय जुगाली करती है।

अपने उम्र से अधिक के दिखने वाले व्यक्ति 45 के थे पर लगते 55 के थे।

शरीर का चमड़ा झूलने लगा था, गंजी खोपड़ी आईने की तरह चमकती थी।

सिद्धेश्वरी से बड़े लड़के के बारे में पूछते है।

सिद्धेश्वरी के दिल में जाने क्या हो गया था जैसे कुछ काट रहा हो।

बड़े लड़के के बारे में कहा कि अभी खा कर गया है।

कह रहा था कि कुछ दिनों में नौकरी लग जाएगी। हमेशा बाबु जी, बाबु जी किए रहता है। बोला बाबु जी देवता समान है। (झूठ कहा)

पागल नहीं बड़ा होशियार है। उस जमाने का कोई महात्मा है। मोहन तो उसकी बड़ी इज्जत करता है। आज कह रहा था कि भैया की शहर में बड़ी इज्जत होती है, पढ़ने-लिखनेवालों में बड़ा आदर होता है और बड़का तो छोटे भाइयों पर जान देता है। दुनिया में सब-कुछ सह सकता है, पर यह नहीं देख सकता कि उसके प्रमोद को कुछ हो जाए।”

सिद्धेश्वरी ने मुंशी जी से कहा।

मुंशी जी दाल लगी हाथ को चाट रहे थे।

मुंशी जी डेढ़ रोटी खा चुकने के बाद एक ग्रास से युद्ध कर रहे थे। कठिनाई होने पर एक गिलास पानी चढ़ा गए फिर खर-खर खाँसकर खाने लगे।

सिद्धेश्वरी के दिल में जाने कैसा भय समाया हुआ था।

सिद्धेश्वरी को मुंशी जी से बात करने का कोई बहाना चाहिए था वह इधर-उधर की बातें करने लगी।

मुंशी जी ने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया।

उनका खाना समाप्त हो चुका था और वह थाल के बचे दाने बीन रहे थे।

सिद्धेश्वरी ने कहा बड़का की कसम एक रोटी देती हुँ।

मुंशी जी ने कहा नमकीन चीजों से मन ऊब गया है।

कसम रखने के लिए ले रहा हुँ गुड़ होगा क्या ?

गुड़ का ठंडा रस सिद्धेश्वरी को मुंशी जी ने बनाने को कहा।

मुंशी जी के खा लेने के बाद सिद्धेश्वरी ने उनकी जूठी थाली लेकर चौके में खाने को बैठ गई।

बटलोई की पूरी दाल कटोरे में उड़ेल दिया, पर वह भरा नहीं।

छिपुली में थोड़ी-सी चने की तरकारी बची थी, उसे पास खींच लिया।

रोटी भी केवल एक ही बची थी।

मोटी-भद्दी और जली उस रोटी को वह जूठी थाली में रखने जा रही थी।

तभी उसका ध्यान ओसारे में सोए प्रमोद पर गया।

फिर उसने एक टक प्रमोद को देखा और रोटी को दो टुकड़ों में विभाजित कर दिया।

एक लोटा पानी लेकर और आधी रोटी लेकर खाने बैठी कि उसके आँखों से टप-टप आँसू चूने लगे।

समस्त घर में मक्खियाँ भिन-भिना रही थी।

आँगन में एक फटी गंदी साड़ी टँगी थी।

बाहर कोठरी में मुंशी जी निश्चिंत होकर सो रहे थे।

जबकि उनकी डेढ़ महीने पूर्व मकान-किराया-नियंत्रण विभाग की क्लर्की से उनकी छटनी हुई थी।

वह रोज नए काम की तलाश में घूमते रहते थे।

इसे भी पढ़े हार की जीत कहानी।

अपनी प्रतिक्रिया दे...

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: