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पाजेब कहानी – जैनेन्द्र की समीक्षा और सार तथा पात्र परिचय

पाजेब pajeb

पाजेब जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानी है, जो कि बाल मनोविज्ञान पर आधारित है।

कहानी प्रथम पुरुष शैली में लिखी गई है।

यह बाल मनोविज्ञान पर आधारित एक संवेदनात्मक कहानी है

कहानी के माध्यम से यह दर्शाया गया है मध्यवर्गीय समाज में चोरी ,केवल व्यक्ति को ही नहीं बल्कि पूरे परिवार की छवि को बिगाड़ देता है।

पात्र परिचय

मुन्नी – चार वर्ष की बालिका

आशुतोष – मुन्नी के बड़े भाई

छुन्नु – आशुतोष का मित्र

प्रकाश – आशुतोष के चाचा

बुआ – आशुतोष और मुन्नी की बुआ।

पाजेब कहानी का सार

कहानी की शुरुआत पाजेब की विशेषता के साथ होती है।

बाज़ार में प्रचलित पाजेब जो कि पैरों में पहनने में बेहद सुंदर मालूम होती है।

जिसकी कड़ियाँ आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का निज आकार ही कुछ नहीं हैं, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल हो रहती हैं।

यह पाजेब हर पैरों में देखने को सरेआम मिल जाती है।

इस कहानी की शुरुआत मध्यवर्गीय परिवेश में होती है।

इस वर्ग के लोगों में आभूषणों को लेकर आकर्षण विदित है।

घर की चार वर्ष की बच्ची मुन्नी सभी को आस-पास पाजेब पहने देख खुद के लिए उसकी जिद करती है।

 मुन्नी की बुआ उसके लिए पाजेब ला देती है।

मुन्नी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता उसे पहनकर वह खुब इठलाती है।

आशुतोष (मुन्नी के बड़े भाई) मुन्नी की खुशी से खुश होते है परंतु बाद में वह भी अपने लिए बाइसिकिल की जिद करते है।

मुन्नी की मॉं पाजेब को संभालकर रख देती है।

रात को दोनों में से एक पाजेब गुम जाती है।

पुरे घर में खोज चलने लगती है।

श्रीमति जी को उनके नौकर बंसी पर शक होता है क्योंकि रखते वक्त वह वहीं उपस्थित था।

 लेखक ने नौकर से पूछा किंतु उसने मना कर दिया।

लेखक ने श्रीमति से आशुतोष से पूछने को कहते हैं क्योंकि उसी दिन वह नई पतंग लाया था।

आशुतोष को बहला-फुसलाकर उससे सत्य जानने का यत्न किया जाता है।

वह बच्चा इस दुविधा में रहता है कि वह उन सवालों का सामना किस प्रकार करें।

उसके बार-बार न कहने पर भी कोई यह मानने को तैयार नहीं कि उसने पाजेब नहीं लिया।

उसके समक्ष विकल्प रखे जाते है कि उसने अपने दोस्त को तो नहीं दे दी है। पाजेब को मिठाई के लिए बेच दी है या पाजेब देकर पतंग ले ली है।

बड़े लोग उससे वह कबूलवाने को सभी उसपर दवाब देते है जो कि उसने किया ही नहीं है।

बच्चे की सोच इस दबाव को सहन नहीं कर पाती ।

बड़ों द्वारा दिए गए विकल्पों को स्वीकार कर लेता है।

जब बड़े उससे पाजेब वापस लाने की बात करते हैं तो वह सोच में पड़ जाता है कि अब पाजेब कहॉं से लाए।

क्योंकि पाजेब तो उसके भी पास नहीं है उसने जिसका नाम लिया है।

घर के बड़ों को बच्चे की मनःस्थिति में चल रही इस द्वंद्व को समझ नहीं पाते।

वह बस उसके हाव-भाव का आकलन करते रहते है।

किसी स्थिति से निकलने के लिए बच्चे जबरन बड़ों की हॉं-में-हॉं मिला देते है।

पर बड़े इस बात को सच मानकर बच्चों को दोषी समझने लगते है।

कहानी बाल मनोविज्ञान को बड़ी ही बारीकी से दर्शाता है।

बच्चों की लाचारगी और प्रश्नों से घिरा उनका मन परिस्थितियों से समझौता करने में ही उसे भलाई नज़र आता है।

जब आशुतोष को पाजेब छुन्नू से मॉंग लाने को कहा जाता है तो वह बस इसी सोच में रहता है कि सच बोलकर भी वह इतने सवालों के घेरो में उलझ गया है।

पर अब पाजेब को न ला पाने पर बहुत बेरुखी से उसके साथ पेश आया जा रहा है।

जब छुन्नु से पाजेब के बारे में पूछी जाती है तब वह साफ मना कर देता है।

चोरी के इलजाम मात्र से छुन्नु की मॉं उसे खूब पीटती है और पाजेब के बदले पैसे देने की बात करती है।

जब आशुतोष ने बड़ों की हॉं-में-हॉं मिलाया था तो उसे बड़ा लाड-प्यार मिला था।

आशुतोष को पतंग वाले के पास से पाजेब वापस लाने उसके चाचा के साथ भेजा जाता है।

पर वह जाने को तैयार नहीं रहता है।

उसे कहा जाता है कि पांच आने में उसने तुमसे पाजेब लिए है उतने उसे देकर पाजेब वापस ले आओ।

पर आशुतोष एक ही रट लगाए हुए था कि पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहां से देगा ?

आशुतोष अपने चाचा के साथ जाता ही रहता है तभी उसकी बुआ आती दिखाई दी।

उन्होंने पाजेब निकाल कर सामने रखा और कहा कि उस रोज भूल से वह उनके साथ चली गई थी।

चोरी की असल बात सामने आने पर आशुतोष के प्रति सहानुभूति और संवेदना का भाव मन में उठता है।

 कहानी के माध्यम से यह दिखाया गया है कि मासूम बच्चों के प्रति कठोर होना और बड़े लोगों पर लागू होने वाले सिद्धांत बच्चों पर सही नहीं बैठते।

जब लेखक बच्चे से प्रश्न कर रहा था तब बच्चे ने तेज आवाज में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली ।

यह कहकर वह रोने-रोने को हो आया, पर रोया नहीं।

इस दृश्य पर लेखक के मन में बच्चे पर शक हुआ कि उग्रता दोष का लक्षण है।

अर्थात बच्चे चाक पर चढ़े मिट्टी के समान है उन्हें जिस आकार में ढ़ालों वह वही रूप ले लेगा।

बच्चों का अंतर्मन बेहद नाजुक होता है वह डर से भी कभी वह कह देते है जो सच नहीं होता ।

बस जरूरत है उन्हें प्यार से समझाने और उन्हें समझने की उनपर विश्वास करने की।

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