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एक और द्रोणाचार्य नाटक – शंकर शेष की समीक्षा/सार और पात्र

एक और द्रोणाचार्य नाटक 1972 में प्रकाशित हुआ।

कथानक में एक शिक्षक की तुलना द्रोणाचार्य से की जाती है, जिसने एक शिक्षक को अन्याय सहन करने की परंपरा दी।

इस नाटक में दो समस्या को दर्शाया गया है –

पहला शिक्षा व्यवस्था में कदाचार और

दूसरा वेतन भोगी मध्य वर्ग के अध्यापक के अस्तित्व की समस्या।

नाटक के पात्र

अरविंद – शिक्षक जो कि आदर्शवादी है किंतु सत्ता के दवाब में आदर्श को ताख पर रखना पड़ता है।

विमलेन्दु – ये भी एक शिक्षक है और सत्ता के विरोध में अपनी जान से हाथ गवाँ बैठता है।

अन्य पात्रअनुराधा, अध्यक्ष, अध्यक्ष का पुत्र, चंदू, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अश्वथामा, द्रौपदी आदि।

एक और द्रोणाचार्य नाटक की समीक्षा

अरविंद एक ईमानदार और आदर्शवादी शिक्षक है जो कि कॉलेज के अध्यक्ष के बेटे को अनुराधा छात्रा के साथ दुष्कर्म करते हुए पकड़ लेते है।

साथ ही अध्यक्ष का बेटा नकल करते हुए भी पकड़ा जाता है।

बात को दबाने के लिए अध्यक्ष अरविंद को लालच देता है और धमकाता है।

विवश होकर अरविंद सत्ता के आगे झुक जाता है और रिपोर्ट वापस कर लेता है।

इसके पश्चात अरविंद अपने मन के द्वंद्व में फँसा रहता है तनावपूर्ण स्थिति में रहता है जिसके कारण वो चिड़चिड़ा हो जाता है।

सत्ता के आगे आदर्श केवल मूक दृष्टि बना रह जाता है।

विमलेन्दु भी एक शिक्षक ही है किंतु उसने अपने आदर्शों के आगे समझौता नहीं किया किंतु उसे जान गवाँनी पड़ गयी।

यह स्थिति जानकर अरविंद अपने मन – ही – मन खुद में ग्लानि भाव से जूझता है।

विमलेन्दु का संघर्ष उससे कहता है कि आओ तुम भी समझौता करो।

यदि समाज तुम्हें भौंकने वाला कुत्ता बनाना चाहता है, तो तुम बनो, क्योंकि तुम व्यवस्था के विपरीत नहीं चल सकते।

यदि चलोगे तो तुम्हें भी मेरी ही भांति मार दिया जाएगा।

नाटक में शिक्षक को ही अपने सवालों में फँसा दिखाया है जैसे –

युद्धभूमि में द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा था कि कौन मारा गया – अश्वत्थामा नाम का हाथी या पुत्र….।

विमलेन्दु का अंतिम वाक्य से नाटक समाप्त होता है कि तू द्रोणाचार्य है।

व्यवस्था और कोड़ो से पिटा हुआ द्रोणाचार्य, इतिहास की धार में लकड़ी के ठूठ की भांति बहता हुआ, वर्तमान के कगार से लगा हुआ, सड़ा गला द्रोणाचार्य।

व्यवस्था के लाइट हाउस से अपनी दिशा माँगने वाला टूटे जहाज-सा द्रोणाचार्य।

इस नाटक का उद्देश्य केवल पौराणिक कथा को दुहराना ही नहीं बल्कि सूक्क्षतम मानवीय सत्य को खोजना है।

जिससे मनुष्य पौराणिक घटना को आज के परिपेक्ष्य में देखने की चेष्टा करेंगे और उसे समझने की कोशिश करेंगे।

कथा प्रसंग में द्वंद्व को लेकर चलने वाला आधुनिक चेतना का एक प्रयोगशील नाटक है।

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