अंजो दीदी की चाह है कि जीवन अनुशासित रहे।
जिसके लिए वह हमेशा दृढ़ रहती है।
उसके इस स्वभाव के कारण सम्पूर्ण परिवार का जीवन दूभर हो जाता है।
उसे भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।
अश्क जी की सोच है कि अहं की भावना परंपरागत प्रवृति है, जो अपनी मनोवृत्तियों को दूसरे पर जबदस्ती थोपती है।
जो कि न ही खुद उन्नति करती है और दूसरे के मार्ग में पत्थर का रूप लेती है।
नाटक में ये बातें अंजो दीदी को उसके नानाजी से मिलती है।
इसमें अंजलि एक समस्यामूलक माँ है जो न तो अपने बच्चों को अपने मर्जी से जीने देती है न ही अपने पति को।
नाटक के पात्र
अंजलि – मुख्य पात्र, जो कि अनुशासित जीवन जीने के लिए एकदम कटिबद्ध है और घर के सभी लोगों को भी ऐसा करने को बाध्य करती है।
श्रीपत – जो उसे उचित मार्ग प्रशस्त करते है।
धीरज – अंजलि का पुत्र।
इन्द्रनारायण – अंजलि के पति
अंजो दीदी की समीक्षा
नाटक की शुरुआत डायनिंग रूम से होती है।
नाश्ते में हुई देरी से अंजो दीदी अपने काम करने वाली पर गुस्सा होती है।
अंजो दीदी का कहना है कि जीवन एक महान गति है; प्रातः एवं संध्या उसकी सुइयाँ हैं जो नियमबद्ध होकर एक दूसरे के पीछे घूमती रहती हैं।
मैं चाहती हूँ कि मेरा घर भी उसी घड़ी की तरह चले और हम सब इसके पुर्जे बन जाए और नियमपूर्वक अपना काम करते जाए।
श्रीपत जो कि अंजो दीदी के इस स्वभाव के दुष्प्रभाव समझाता है।
उसके इस स्वभाव का बुरा असर घर के समस्त लोगों के भविष्य पर पड़ेगा।
श्रीपत के अनुसार मनुष्य अपना नैसर्गिक स्वभाव न छोड़े।
श्रीपत के आने के बाद घर का माहौल बदलने लगता है।
श्रीपत के जाते ही पुनः अंजलि अपने घर वालों को पुराने नियमित ढर्रे पर चलने को विवश करने लगती है, लेकिन असमर्थ हो जाती है।
अंजलि का मानसिक संतुलन खो जाता है और खुद पर प्रहार करके आत्महत्या कर लेती है।
इसके परिणामस्वरूप अंजलि के पति शराब की आदत में पड़ जाते है और श्रीपत के आने के बाद भी ये आदत नहीं बदल पाते।
अंजलि के मृत्यु के बाद वे अपने पत्नी के आदर्शों पर चलने लगते है उनकी याद में।
इस तरह अंजलि के मृत्यु पश्चात भी उसका स्वभाव उसके घर में जारी रहता है।
अश्क जी यह बताना चाहते है कि जो व्यक्ति जैसा है वैसा ही रहे।
जब कोई व्यक्ति अपनी वास्तविकता को छोड़ देता है, तब वह जीवन में असफलता ही प्राप्त करता है।